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  • ‘टर्निंग 30’

    फिल्म की कहानी है नैना (गुल पनाग)की जिसकी लाइफ में 30 का पड़ाव पार करते ही कई बदलाव आ जाते हैं|उसका दिल टूट जाता है और दूसरी ओर उसका करियर भी डगमगाने लगता है|फिल्म एक अपरिपक्व महिला के जिम्मेदार बनने की कहानी है|इस दौरान उसकी जिंदगी में कई उतार चढ़ाव आते हैं मगर हार न मानते हुए अंततः वह मंजिल पा ही जाती है|

  • नो वन किल्ड जेसिका’

    विवादित जेसिका लाल हत्याकांड पर आने जा रही ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के बारे में फिल्म अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने कहा है कि यह मात्र एक मनोरंजक फिल्म है। इस फिल्म में रानी एक पत्रकार की भूमिका में दिखाई देने वाली हैं

  • बदलना होगा भोजपुरी सिनेमा को

    एक अधनंगी लड़की, जिसने पता नहीं किस मजबूरी में अपने विदलन (स्तनों के बीच का भाग) दिखाये होंगे 2. खून से लथपथ हीरो और विलेन (सोचिए, फोटो खिंचवाते समय कितना खून पी जाते होंगे) और नकली बंदूक या चाक़ू… और हां बहुत सारे दूसरे लोग भी दिखेंगे… उन पर ज्यादा ध्यान न भी दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये जो उच्चतम दर्जे की भोजपुरी फिल्‍में हैं, वो अस्सी के दशक की “सी ग्रेड” हिंदी फिल्‍मों जैसी हैं। हालांकि वो फिल्‍में भी तकनीकी स्तर पर आज की भोजपुरी फिल्‍मों से आगे थीं

  • माइकल जैक्सन ने की थी आत्महत्या

    मशहूर पॉप स्टार माइकल जैक्सन ने एनेथिसिया प्रोपोफोल का जरुरत से ज्यादा डोज लेकर आत्महत्या की थी|डॉक्टर कोनरेड मुरे के वकील ने यह दावा किया है| कोनरेड पर आरोप है कि जैक्सन की हालत बिगड़ने पर जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था तो कोनरेड ने लापरवाही बरती थी जिसकी वजह से जैक्सन की मौत हो गई थी| कोनरेड के वकील ने उनके बचाव में यह बातें लॉस एंजेलस के डिपटी डिस्ट्रिक्ट अटर्नी डेविड वालग्रेन को बताई

  • प्रियंका चोपड़ा बाहर

    अगर आपको लगता है कि शाहरुख़ खान कुछ खास अभिनेत्रियों के साथ काम करना पसंद करते हैं तो आप गलत हैं|अगर किसी अभिनेत्री के साथ शाहरुख़ ने पिछली फिल्म में काम किया है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह उनके साथ आनेवाली फिल्म में भी काम करेंगे|प्रियंका चोपड़ा को शायद शाहरुख़ का तरीका अच्छी तरह से समझ आ गया होगा|

Wednesday, January 12, 2011

‘टर्निंग 30’

News4Nation 10:04 PM

Movie Name:टर्निंग 30
Critic Rating:
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10
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3
Viewer Rating:
Star Cast:गुल पनाग,पूरब कोहली,सिद्धार्थ मक्कड़
Director:अलंकृता श्रीवास्तव
Producer:सिद्धार्थ सुहास
Music Directer:
Genre:सोशल/कॉमेडी

कहानी
टर्निंग 30

कहानी:फिल्म की कहानी है नैना (गुल पनाग)की जिसकी लाइफ में 30 का पड़ाव पार करते ही कई बदलाव आ जाते हैं|उसका दिल टूट जाता है और दूसरी ओर उसका करियर भी डगमगाने लगता है|फिल्म एक अपरिपक्व महिला के जिम्मेदार बनने की कहानी है|इस दौरान उसकी जिंदगी में कई उतार चढ़ाव आते हैं मगर हार न मानते हुए अंततः वह मंजिल पा ही जाती है|

रिव्यू:प्रकाश झा और अलंकृता श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इस फिल्म के जरिए ऐसे विषय को उठाया जिसपर ज्यादा फिल्में अब तक नहीं बनी|फिल्म का पहला भाग गुल पनाग पर ही केन्द्रित है जो ढलती उम्र,ब्रेक अप और करियर में उतार चढ़ाव से परेशान है|बीच में फिल्म की रफ़्तार काफी धीमी हो जाती है मगर जीवंत संवाद फिल्म से दर्शकों को जोड़े रखता है|फिल्म का अंत काफी सुखद होता है मगर उसे काफी चलताऊ तरीके से फिल्माया गया है|इसे अगर औरपरिपक्व तरीके से फिल्माया जाता तो यह और प्रभावशाली हो सकता था|फिल्म में गुल पनाग का अभिनय जानदार है वो 30 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच रही एक महिला की उलझन को बखूबी दर्शाने में कामयाब रही हैं|

स्टोरी ट्रीटमेंट:'टर्निंग 30 ' महत्वपूर्ण दृश्यों और संवाद का मिल जुला रूप है जिससे आप खुद को जोड़कर देख सकते हैं कि जब आप 30 साल के होंगे तो आपको किन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा| सोचिये अगर आप एक लड़की हैं और 30 की उम्र में ढलते यौवन और जॉब खो देने की वजह से जब आपको कोई साथी न मिले तो आपको कैसा लगेगा|मगर गुल को सारी परेशानियों से लड़ते हुए एक परिपक्व महिला बनते देखना काफी दिलचस्प है|

स्टार कास्ट:फिल्म में गुल पनाग का अभिनय जानदार है वो 30 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच रही एक महिला की उलझन को बखूबी दर्शाने में कामयाब रही हैं|उनका स्टाइल सेन्स,छोटे छोटे बाल उनके केरेक्टर को और निखारने में कामयाब रहे हैं|पूरब कोहली ने साहिल के किरदार को सहजता से निभाया है|वह पहले तो नैना को सिर्फ एक सेक्स की पूर्ति करने का जरिया समझता है मगर बाद में उससे सच में प्यार करने लग जाता है|

निर्देशन:नयी निर्देशिका अलंकृता श्रीवास्तव ने एक नए विषय पर फिल्म बनाई है जो काबिले तारीफ है|उन्होंने फिल्म के माध्यम से एक छुपे विषय को उठाने की कोशिश की है|हालाँकि फिल्म की कहानी एक सीमित और उच्च वर्ग के दर्शकों को ही ज्यादा रास आयेगी मगर इससे अलंकृता के कमाल के निर्देशन की झलक दिख गई है|

डायलॉग्स/सिनेमाटोग्राफी/म्यूजिक:फिल्म के संवाद हार्डहिटिंग हैं खास तौर से जिस प्रकार वह एक्टर्स के द्वारा बोले गए हैं|सिनेमाटोग्राफी भी अपना ध्यान खींचती है खास तौर से जिस प्रकार से कैमरा एंगल्स लिए गए हैं वह काफी अलग और प्रभावशाली हैं|फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है और टाइटल  ट्रेक 'टर्निंग 30' अपीलिंग है|'सपने' गाना एक अच्छा साउंडट्रेक है|
अप्स और डाउन्स:एक अच्छी लिखी हुई और निर्देशित फिल्म जो 30 + महिला के जीवन के उतार चढ़ाव को बखूबी दर्शाती है|गुल पनाग की सधी हुई एक्टिंग और बेहतरीन स्क्रीनप्ले फिल्म की जान हैं|प्रकाश झा जो  कि एक सीमित विषय और गंभीर विषय पर फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं उनके प्रोडक्शन में एक महिला केन्द्रित फिल्म बनना काफी अलग और हटकर लगता  है|मगर फिल्म सीमित और उच्च वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई हुई ज्यादा लगती है इसलिए हर एक वर्ग को जोड़ने में नाकामयाब रहेगी|

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Tuesday, January 4, 2011

मनोरंजक फिल्म है ‘नो वन किल्ड जेसिका’ : रानी

News4Nation 9:29 AM

 
 
 
विवादित जेसिका लाल हत्याकांड पर आने जा रही ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के बारे में फिल्म अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने कहा है कि यह मात्र एक मनोरंजक फिल्म है। इस फिल्म में रानी एक पत्रकार की भूमिका में दिखाई देने वाली हैं।



अभिनेत्री ने बताया कि मैने यह भूमिका इसलिए स्वीकार की क्योंकि मुझे लगा कि इस फिल्म में मनोरंजन के सभी तत्व मौजूद हैं।



रानी ने बताया कि मेरे हिसाब से यह एक व्यवसायिक फिल्म है। अगर कोई फिल्म का प्रोमो देखेगा तब उसे इस बात का एहसास होगा कि फिल्म में मेरी भूमिका मनोरंजक है। यह फिल्म किसी एक मुद्दे पर आधारित नहीं है ,इसमें मनोरंजन के सभी तत्व मौजूद हैं।



यह फिल्म सात जनवरी को दर्शकों के बीच आने वाली है। फिल्म में अभिनेत्री विद्या बालन जेसिका की बहन सबरीना की भूमिका में है

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शाहरुख बने सैफ की राह में रोड़ा !

News4Nation 9:27 AM

 
 
 
शाहरुख खान की फिल्म 'टू स्टेट्स' सैफअली खान की ड्रीम स्क्विल ( जागते रहो) के रास्ते में बाधा बन गई है। दरअसल इन दोनों ही फिल्मों के डायरेक्टर विशाल भारद्वाज है और उन्होंने शाहरुख की फिल्म को पहले पूरा करने का निर्णय लिया है।



सैफ की फिल्म इसके पहले भी एक बार उलझ गई थी जब करीना कपूर, कैटरीना और प्रियंका चौपड़ा में से किसी से भी तारीख नहीं मिल पाई थी। दीपिका इस फिल्म को करने तैयार हो गई थी लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने ने भी प्रोडक्शन टीम से विवाद के बाद फिल्म करने से मना कर दिया।



अब शाहरुख की 'टू स्टे्टस' उनके रास्ते में आ गई है। सैफ का ड्रीम प्रोजेक्ट उनके लिए मनहूस साबित हो रहा है। इसलिए सैफ को इसे थोड़ा रियलिस्टिक बनाना चाहिए, जिससे कि सैफ को आगे कोई प्रोबल्म नहीं होगी।

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Saturday, January 1, 2011

बहुत हुआ, अब भोजपुरी सिनेमा को बदलना ही होगा!

News4Nation 12:29 AM

♦ नितिन चंद्र

हम इन दिनों भोजपुरी सिनेमा की दुनिया खंगालने की कोशिश कर रहे हैं। आलोक रंजन ने पहली फिल्‍म की कहानी बतायी, नितिन आने वाले वक्‍त की तस्‍वीर साफ कर रहे हैं। वे खुद फिल्‍मकार हैं और भोजपुरी सिनेमा की नयी भाषा को लेकर सजग हैं। उन्‍हें दुख है कि भोजपुरी सिनेमा का मौजूदा परिदृश्‍य भोजपुरी समाज की मिट्टी खराब कर रहा है। उनका गुस्‍सा रचनात्‍मक है और हम उनकी इस बेचैनी में खुद को शामिल करते हैं : मॉडरेटर
भोजपुरी सिनेमा बनाने वालों द्वारा भोजपुरी भाषा और संस्‍कृति का बाजारीकरण
(सिर्फ वयस्‍कों के लिए)
Disclaimer
ये लेख सिर्फ उन लोगों के लिए है, जो सिनेमा को एक कला की तरह भी देखते हैं और भोजपुरी सिनेमा में पसरी हुई गंदगी के प्रति चिंतित हैं, या नहीं चिंतित हैं…
Your life begins to end the day you become silent about things that matter. 
Martin Luther King Jr.

ई बार जब आप पटना के गांधी मैदान, बांस घाट, रेलवे स्टेशन या मुंबई के अंधेरी, दादर, बांद्रा या दिल्ली के लाजपत नगर, कनाट सर्कल की तरफ से गुजरेंगे तो आपको बड़े भद्दे से, भड़कीले रंगों में, अजीब से चहरों और नामों वाली फिल्‍मों के पोस्टर दिखेंगे। ये हैं भोजपुरी, आपकी भाषा की फिल्मों के पोस्टर्स। शायद आपका आभिजात्य आग्रह, शिक्षा और पारिवारिक पृष्‍ठभूमि ऐसे पोस्टर्स की तरफ आपका ध्‍यान जाने से रोके लेकिन उन पोस्‍टर्स में प्रचारित कहानी बिहार और पूर्वांचल में रहने वाले हर अमीर, गरीब, नेता, अभिनेता, कलाकार, बैंक क्‍लर्क, स्‍कूल शिक्षक, गांव की लड़की, सुमो और मारुति गाड़ी में घूमने वाले ऊंची सोसाइटी के लोग… भोजपुरिया और बिहारी पहचान से ताल्‍लुक रखते हैं। शायद आप अपनी भाषा और पहचान से मुकर जाएं और मुंह बिचका के निकल जाएं, ठीक वैसे ही जैसे कचरे की गंध को सूंघ कर हम नाक बंद करके चल देते हैं, लेकिन वही कचरा जब संक्रमण का रूप लेता है, तब हम जागते हैं या हमेशा के लिए सो जाते हैं। बड़ी अजीब बात है कि इस कचरे के फैलने में आपका भी हाथ है, माने या न मानें। अगली बार जब आप इन भोजपुरी फिल्‍मों के पोस्टर्स को देखें तो थोड़ा बेशर्म होकर गाड़ी, स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि को रोक लें (अगर आपके साथ कोई नाबालिग लड़का या लड़की हो तो ऐसा न करें) और एक नजर भर के देखें। आप सामान्यतः तीन चीजें देखेंगे…
1. एक अधनंगी लड़की, जिसने पता नहीं किस मजबूरी में अपने विदलन (स्तनों के बीच का भाग) दिखाये होंगे
2. खून से लथपथ हीरो और विलेन (सोचिए, फोटो खिंचवाते समय कितना खून पी जाते होंगे) और नकली बंदूक या चाक़ू… और हां बहुत सारे दूसरे लोग भी दिखेंगे… उन पर ज्यादा ध्यान न भी दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये जो उच्चतम दर्जे की भोजपुरी फिल्‍में हैं, वो अस्सी के दशक की “सी ग्रेड” हिंदी फिल्‍मों जैसी हैं। हालांकि वो फिल्‍में भी तकनीकी स्तर पर आज की भोजपुरी फिल्‍मों से आगे थीं।
इन फिल्‍मों के नाम पर भी हम आएंगे। भोजपुरी सिनेमा का तिबारा जन्म (दो बार वह मर चुकी थी) हुआ, “ससुरा बड़ा पैसा वाला” नामक एक फिल्म से और उसके बाद भोजपुरी फिल्‍मों एक नया दौर शुरू हुआ। इसमें अमिताभ बच्चन के सचिव से लेकर, बिहार के कुछ नेता, दिल्ली के नौकरशाह से लेकर, Ex – Spotboy या देश के किसी भी कोने या भाषा-भाषी का इंसान हो, उसने इस धंधे में पैसा लगाया और कमाया। आज सबको पता है कि किस भाषा की फिल्‍मों को कामुकता का मसाला और अश्लीलता का तड़का लगा दें तो कुछ बेचारे गरीब, अनपढ़ लड़के, रिक्शा, ठेला वाले, स्‍कूल से भागे बच्चे और इस अफीम रूपी सिनेमा के नशे से ग्रसित लोग देखने आ ही जाएंगे। दस-दस रुपये के टिकट खरीद कर फिल्म देखने वाले ये लोग, जो बेचारे तमाम सुविधाओं से वंचित हैं और इतने शिक्षित भी नहीं हैं कि अपना भला बुरा सोच सकें, जानते ही नहीं कि इनके साथ क्या हो रहा है। इनकी सोचने-समझने की शक्ति को इतनी सूक्ष्मता से मारा जा रहा है कि ये जान भी नहीं पाएंगे कि ये असर सिनेमा का है या किसी और चीज का।
कुछ हाल ही में प्रदर्शित भोजपुरी फिल्‍मों के नाम हैं, “मार देब गोली केहू न बोली”, “जरा देब दुनिया तहरा प्यार में”, “देवरा बड़ा सतावेला”, “लहरीया लुटs ऐ राजाजी”, आदि। “रणभूमि” जैसी सशक्त मुद्दों पर बनी फिल्‍मों में भी बेहद अश्‍लील गाने हैं। हालांकि नाम इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी बड़ी समस्‍या इन फिल्‍मों में दिखायी जाने वाली विषय सामग्री। क्या मैं कुलीन और उच्च वर्ग के बिहारी की तरह बातें कर रहा हूं? नहीं, मैं सिर्फ बिहार का रहने वाला और भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी से प्रेम करने वाला एक साधारण बिहारी हूं, जो भोजपुरी फिल्मों के द्वारा हो रहे भोजपुरिया समाज और बिहार की संरचना और उसकी संस्‍कृति पर हो रहे प्रहार को लेकर चिंतित है।
आखिर माजरा क्या है? सब पैसे का खेल है। यही सोच रहे होंगे आप। सही सोच रहे हैं आप।
एक भाषा सिर्फ भाषा नहीं होती, सिर्फ बात पहुंचाने का साधन नहीं होती है बल्कि एक समाज का अंग, उस सभ्यता की प्रतिनिधि होती है। उसके बोलने वालों की संस्कृति को अपने हर शब्द से बयान करती है। सिनेमा, या किसी भी रूप में जन-संचार, या वो टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट हो, अपने में बड़ा ही बलवान होता है। आज के सामाजिक परिवेश में उसका बहुत महत्त्व है और लोग उसे विश्‍वसनीय भी मानते हैं। सिनेमा इनमें से एक बहुत ही सार्थक और सशक्त संचार का माध्यम है। भारतीय समाज पर सिनेमा का असर कितना रहा है, ये तो सभी जानते हैं। भोजपुरी भाषा और इस माध्यम का मिलन हुआ सन 1962 में। बड़े उत्साह से हमारे पूर्वजों ने भोजपुरी सिनेमा की नींव रखी। बड़े-बड़े कलाकार, गायक वगैरह आये और इसका बीज बोया। लेकिन आज क्या हालत है? और इसका जिम्मेदार कौन है?
अगर आप बिहार के रहने वाले हैं, या भोजपुरी भाषी हैं और देश के किसी भी कोने में आप इंजीनियर, डाक्टर, वकील, बैंक अफसर, नौकरशाह, मंत्री, नेता, मुख्यमंत्री, राज्यसभा सदस्य, छात्र, घूसखोर किरानी, कालाबाजारू कारोबारी, समाज सेवक, दिल्लीवाला बनने के लिए आतुर हैं, अपने आपको बिहारी कहने से शर्माती हुई लड़की या घुट-घुट के जीने वाले कोई भी व्यक्ति हैं, तो मैं ये बता दूं की ये भोजपुरी फिल्‍में आप ही की कहानी बता रही हैं, और आप हैं कि कहते है की हम देखते नहीं, वो तो बहुत गंदी होती हैं। गंदी तो होती हैं, लेकिन क्यों? क्या इसका आप पर कोई असर होता है?
मेरे एक पहचान के व्यक्ति हैं। उन्होंने कहा कि कला पहले अपने बेडौल रूप में रहती है, फिर धीरे-धीरे बारीक और सुंदर होती है। मैं उनकी इस बात से सहमत हूं, लेकिन एक हद तक। सिर्फ ये कह कर कि सब ठीक हो जाएगा और भोजपुरी सिनेमा अभी परिवर्तन के चरण में है, सारी बहस को समाप्त नहीं किया जा सकता। आज का भोजपुरी सिनेमा, बिहार और भोजपुरिया समाज की क्या छवि बना रहा है, ये एक व्यक्तिपरक (subjective) बात हो सकती है लेकिन मैं इसे एक गंभीर समस्या मानता हूं। आज बिहार और पूर्वांचल के हिस्सों में मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका और अवधी भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन सिनेमा के माध्यम से भोजपुरी भाषा की फिल्‍में ही छवि बना रही हैं या बिगाड़ रही हैं। आज बिहार भोजपुरी सिनेमा का सबसे बड़ा बाजार है। आज भोजपुरी सिनेमा बेहद प्रतिगामी (regressive) है, और अपने घिसे-पिटे संगीत और गीत से सस्ता और हानिकारक मनोरंजन कर रहा है। और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की भोजपुरी फिल्मों ने अपने लिए हजारों दर्शक खड़े कर लिये हैं, जो इस नशे से बीमार हैं। क्या मजाल कि आज एक अच्छी सोच का निर्माता/निर्देशक भोजपुरी में एक साफ-सुथरी फिल्म बनाने की सोच सके। हालांकि कुछ फिल्‍मे बनी भी हैं।
कभी आपने सोचा है के ऐसे फिल्मी पोस्टर्स और टीवी पर ट्रेलर्स को देख रहा एक गैर बिहारी या भोजपुरिया, हमारे समाज के बारे में क्या छवि बनाता होगा?
पूरी दिल्ली, गुड़गांव और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बिहार के लोगों से पटा पड़ा है। दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय और तमाम ऑफिसेस, कॉल सेंटर्स, कॉरपोरेट्स आदि जगहों पर बिहार के लोग भरे पड़े हैं। लेकिन क्या ये लोग भोजपुरी फिल्‍में देखते हैं? बिलकुल नहीं। दिल्ली या मुंबई में रह रहे बंगाली तो देखते हैं अपनी भाषा की फिल्‍में। दिल्ली में रहने वाला तमिल आदमी भी देखता है, जब उसकी भाषा की फिल्‍में सिनेमा घरों में लगती हैं। मराठी, कन्नड़, मलयाली, असमिया, उड़‍िया वगैरह सब अपनी भाषा की फिल्‍में देखते हैं, लेकिन बक्सर जिले में रहने वाला एक पढ़ा-लिखा भोजपुरी बोलने वाला इंसान भोजपुरी फिल्‍में नहीं देखता। आश्चर्य है न? क्‍योंकि भोजपुरी भाषा का इस्तेमाल तो अश्लीलता बेचने के लिए किया जा रहा है और अनपढ़-गरीब जनता को और भ्रष्ट बनाया जा रहा है। और उन बनाने वालों से पूछो, तो कहते हैं कि पब्लिक की डिमांड है तो हम बनाते हैं। पब्लिक की “डिमांड” तो बहुत कुछ होगी तो क्या सब करेंगे? नहीं न! आप youtube पर जाइए और एक क्लिक करते ही आपको भोजपुरी के “सुपर हिट” गाने मिलने शुरू हो जाएंगे। कुछ गाने इस प्रकार से हैं, “तनी धीरे धीरे डाला, सील बा… तनी हौले हौले डाला, दुखाता राजाजी…”, “लहंगा उठा देब रिमोट से..”, “सैय्यां लेके बहियां में मारेलन काचा कच कच कच…”, “काहे नाही आये सईयां, रतियां में बोलकर, बईठल रहनी पिछली कोठरिया में खोलकर…” खैर ये एक अंतहीन सूची है।
आखिर ये कौन लोग है?
ज्यादातर भोजपुरी बोलने वाले लोग हैं। कोई पटना से है, कोई बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर, रांची से है। अपने लोग हैं जो अपने जीवन का महत्त्व नहीं समझ रहे हैं, और संस्कृति का सामूहिक रूप से संहार कर रहे हैं। कल्लू नाम का एक 14 वर्षीय बालक, आज भोजपुरी का सबसे प्रसिद्ध गायक है। उसकी उपलब्धि ये है कि उसने भोजपुरी के कुछ सबसे अश्‍लील गाने गाये हैं। उसके परिवार वालों का कहना है कि कल्लू एक निहायत मासूम और अबोध बच्चा है। “लगा दी चोलिया के हुक राजाजी” और “सकेत होता राजाजी” उसकी गायकी के कुछ नायाब नमूने हैं। अधेड़ उम्र के लोग उसके गानों पर नाचते हुए दिख जाएंगे। इस धंधे में ज्यादातर बिहार के ही लोग हैं, जो पैसे के लिए अपनी संस्कृति, अपने लोगों और अपनी आत्मा को बेचते हैं।
आइए जरा भोजपुरी फिल्मों के इतिहास पर एक नजर डालें। विश्वनाथ शाहबादी ने 1962 में “गंगा मइया तोरे पियरी चढ़इबो” से शुरुआत की थी। इस वक्त तक दूसरे क्षेत्रीय भाषा की फिल्‍मों को आये हुए 30-40 साल हो गये थे और भोजपुरी नया था। लेकिन शुरुआत की फिल्‍मों में भिखारी ठाकुर जैसे लोग खुद नजर आये थे। महेंदर मिसिर के गानों का रस था, निर्गुण पर नृत्य होता था और पूरबी और बिरहा की तान थी। बिदेसिया, लोहा सिंह, लागी नाही छूटे रामा, जैसी कुछ बहुत ही सुंदर और सामाजिक फिल्‍में बनीं। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मन्ना डे जैसे गायक और चित्रगुप्त जी जैसे संगीतकार थे। वो था बीता हुआ कल।
आज तेलुगु, तमिल, मलयाली, मराठी इत्यादि भाषाओं की फिल्म राष्ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय फिल्म समारोहों में जा रही है। ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में भारत की लगभग सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषा की फिल्‍में जा चुकी हैं। मराठी सिनेमा के अंदर उमेश कुलकर्णी, केदार शिंदे, तेलुगु में शेखर कमुल्ला, तमिल में मणिरत्‍नम, आमिर सुलतान, मलयालम में अदूर गोपालकृष्णन, कन्नड़ में गिरीश कसारावल्ली, बांग्ला में रितुपर्णो घोष, अपर्णा सेन, गौतम घोष इत्यादि लोग हैं, जिन्होंने अपनी भाषा की फिल्मों को राष्‍ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया है, अपनी संस्‍कृति को और सुसज्जित किया है। मैं किसी भी भोजपुरी निर्देशक का नाम नहीं जानता। भोजपुरी वालों की तरह भोजपुरी रूपी अपनी मां का बीच चौराहे पर चीरहरण नहीं किया है। जब भी मैं भोजपुरी के किसी पोस्टर या ट्रेलर को देखता हूं तो ऐसा लगता है जैसे भोजपुरी रूपी मां अपने बच्चो से चीख चीख कर कह रही हो कि मेरा बलात्कार मत करो, मुझे थोड़ी इज्जत दो। लेकिन शायद कोई सुनने वाला नहीं है।
भोजपुरी फिल्मकारों को क्या हुआ? सच तो ये है कि भोजपुरी में कोई फिल्मकार ही नहीं है। मैं, बिहार के भोजपुर क्षेत्र से आता हूं। चंपारण से भी उतना ही गहरा रिश्ता है। लेकिन मैंने आजतक कोई भी भोजपुरी फिल्म सिनेमाघर में नहीं देखी है। मैं बाकी सारी भाषाओं की फिल्‍में सिनेमाघर में देखता हूं। ये हास्य से ज्यादा दुःख की बात है। कैसे इन फिल्मकारों ने मुझे और करोड़ों पढ़े-लिखे लोगों को भोजपुरी सिनेमा से अलग कर दिया और बिहार और भोजपुरी समाज के आभिजात्य वर्ग ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया। कह देते हैं कि भी हम तो नहीं देखते भोजपुरी, हां घर में बात करते हैं जरूर भोजपुरी में। लेकिन मैं कहता हूं कि “अरे ऐसा बोलने वाले बेवकूफो, छवि तो तुम्हारी ही बन रही है दुनिया के सामने”। आधे बदन के कपड़े पहने वो लड़की कौन है, उस पोस्टर पर? ध्यान से देखो? वही भोजपुरी है। छाती ठोंक कर कहते हैं न आप, डॉ राजेंद्र प्रसाद भारत के पहले राष्ट्रपति थे, उनकी भाषा थी भोजपुरी! भिखारी ठाकुर का नाम तो सुना होगा, उनकी भाषा थी भोजपुरी। मुंशी प्रेमचंद, मंगल पांडे, वीर कुंवर सिंह, जयप्रकाश नारायण, बिस्मिल्लाह खान, शिव नारायण राम गुलाम की भाषा है भोजपुरी! ये हम सबकी मां है। अगली बार अपनी मां को देखिए और दीवार पर लगे उन पोस्टर्स को देखिए। पैसे के लिए तन या मन को बेचने को ही वेश्यावृत्ति कहते हैं। लेकिन…
शर्म उनको मगर नहीं आती!!!
(नितिन चंद्र। युवा फिल्‍मकार। पटना और पुणे से पठन-पाठन खत्‍म करने के बाद सिनेमा की नयी जमीन बनाने की कोशिश। चंपारण टॉकीज नाम से एक कंपनी की नींव रखी। पहली फिल्‍म बनायी देसवा। फिल्‍म की भाषा भोजपुरी है और कहा जा रहा है कि यह भोजपुरी सिनेमा के इतिहास का प्रस्‍थान बिंदु साबित होगी। उनसे nitinchandra25@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
मोहल्ला लाइव  से  साभार  प्रकाशित 

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Thursday, December 30, 2010

'हमारे लिए फ़ादर फ़िगर थे हृषिदा'

News4Nation 11:39 PM


 

 
 
'अभिमान' हृषिदा की अनेक बेहतरीन फ़िल्मों में से एक थी
1973 में आई फ़िल्म 'ज़ंजीर' से मेरी 'एंग्री यंग मैन' वाली छवि बनी लेकिन उससे काफ़ी पहले मैंने हृषिकेश मुखर्जी के साथ किया था.
लेकिन मैंने कभी भी छवि को ध्यान में रखकर काम नहीं किया, मैं प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई के साथ काम कर चुकने के बाद भी हृषिदा के साथ लगातार काम करता रहा.
हृषिदा मेरे और मेरी पत्नी जया के लिए 'फ़ादर फ़िगर' थे, उनके फ़िल्म बनाने का अंदाज़ बिल्कुल अलग था और वे कभी भी क्वालिटी या कथानक से समझौता नहीं करते थे.
वे कभी किसी लीक पर नहीं चले उन्होंने अपना रास्ता ख़ुद तैयार किया जो न तो बहुत व्यावसायिक था और न ही बहुत कला प्रधान.
हृषिदा की कुछ यादगार फ़िल्में
आनंद
मिली
चुपके-चुपके
बेमिसाल
नमक हराम
जुर्माना
सत्यकाम

मुझे यह स्वीकार करना होगा कि अब तक मैंने जितनी भी दिलचस्प भूमिकाएँ की हैं सब उन्हीं की फ़िल्मों में. 'आनंद', 'मिली', 'चुपके-चुपके', 'बेमिसाल', 'नमक हराम' और 'जुर्माना'.
ये सब के सब किरदार बेहतरीन तरीक़े से रचे गए थे और हृषिदा की फ़िल्मों में काम करने पर अभिनय करने का पूरा अवसर मिलता था.
फ़िल्म निर्माण के मामले में उनकी जानकारी इतनी गहरी थी कि हम अपने आप को पूरी तरह उनके हवाले कर देते थे.
हमने कभी स्क्रिप्ट नहीं सुनी, कभी नहीं पूछा कि कहानी क्या है, हम सीधे सेट पर पहुँच जाते थे.
वे हमें बताते थे कि कहाँ खड़ा होना है, क्या बोलना है, कैसे बोलना है, वे सबको अच्छी तरह निर्देश देते थे.
उनकी फ़िल्मों में आप जो हमारा काम देखते हैं उनमें से कुछ भी हमारा नहीं है, सब कुछ हृषिदा का है.
अनूठे निर्देशक
मिली जैसे जटिल चरित्र के मामले में भी वे एक वाक्य में बता देते थे और उसके बाद जब शूटिंग शुरू होती थी तो कलाकारों को निर्देश देते थे.
मैं ख़ुद देख सकता था कि मेरा चरित्र किस तरह से विकसित हो रहा है, मुझे बहुत अच्छा लगता था कि मैंने अपने आप को एक उस्ताद के हवाले कर दिया है. किसी को कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं होती थी सब जानते थे कि हृषिदा उन्हें सही साँचे में ढाल देंगे.
जया को कई फ़िल्मों में हृषिदा का निर्देशन मिला

वे एक बेहतरीन एडिटर थे, वे एक दृश्य का फ़िल्मांकन करते थे तो किसी को तब तक कुछ पता नहीं चलता था जब तक कि उसका संपादन न हो जाए. संपादन के बाद दृश्य को देखकर समझ में आता था कि उन्होंने उस दृश्य की कितनी बेहतरीन कल्पना की थी.
वे फ़िल्म का अंतिम दृश्य सबसे पहले फ़िल्मा सकते थे, उसके बाद बीच के दृश्य और अंत में शुरूआत की शूटिंग, लेकिन जब फ़िल्म एडिट होकर तैयार होती तो पता चलता कि वे कितने प्रतिभाशाली थे.
वे प्रतिभा को पहचानते थे, उसे ललकारते थे, उसका मार्गदर्शन करते थे, हम सब बस उनका अनुसरण करते थे. उनके पात्र और स्थितियाँ सच के बहुत क़रीब होती थीं और कलाकार को पूरा अवसर मिलता था अभिनय कला दिखाने का.
उनकी फ़िल्में बहुत बारीक होती थीं और आगे चलकर कई दूसरे निर्देशकों ने उनका रास्ता अपनाया.
उनकी फ़िल्मों में से किसी एक चरित्र को बेहतरीन बता पाना बहुत कठिन काम है, 'आनंद', 'मिली' और 'अभिमान' के चरित्र मुझे विशेष तौर पर प्रिय हैं. ये तीनों फ़िल्में सिने-निर्माण की दृष्टि से बेहद आनंददायक थीं.
मैंने अगर किसी एक निर्देशक के साथ सबसे अधिक फ़िल्मों में काम किया तो वो हृषिदा ही थे. कुछ लोग ग़लत समझते हैं कि मैंने प्रकाश मेहरा या मनमोहन देसाई की फ़िल्मों में अधिक काम किया है.
यह कहना ग़लत होगा कि वे जिस तरह फ़िल्में बनाते थे वे अब नहीं चलेंगी, मैं पक्के तौर पर जानता हूँ कि अगर हृषिदा फ़िल्म बनाते तो अपने ही ढंग की फ़िल्में बनाते और उन्हें लोग देखते और सराहते.
लता खूबचंदानी से बातचीत पर आधारित
 

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सितारा मेहनताना और प्लास्टिक के फूल

News4Nation 11:20 PM

ना ना पाटेकर की फिल्म ‘हॉर्न ओके प्लीज’ का प्रदर्शन विगत वर्ष तीन बार घोषित हुआ, परंतु प्रदर्शन नहीं हुआ। बताया जाता है कि नए निर्माता से नाना ने इतना अधिक पारिश्रमिक लिया है कि इसकी लागत वसूल ही नहीं हो सकती। उन दिनों सभी कलाकार बाजार में तेजी के कारण अपने बाजार मूल्य से कम से कम दस गुना अधिक पैसा मांग रहे थे और कारपोरेट कंपनियों में फिल्में खरीदने की होड़ लगी हुई थी।

इस नकली समृद्धि का सपना टूटते ही कारपोरेट कंपनियां यथार्थ के धरातल पर लौट आईं। मंदी के दौर में सभी क्षेत्रों ने किफायत का मूल्य समझा, परंतु सितारों के अहंकार ने उन्हें सच्चई से रूबरू नहीं होने दिया। ‘मुन्नाभाई’ श्रंखला ने अरशद वारसी को चने के झाड़ पर चढ़ा दिया और उन्होंने आसमानी सुल्तानी पैसे मांगना शुरू कर दिए। उनकी कोई फिल्म सफल नहीं हुई। दरअसल वह सफलता अरशद वारसी की नहीं, वरन राजकुमार हीरानी की थी।

सितारों की दिमागी गुफाओं में बढ़ी हुई कीमतें उल्टी चीलों की तरह हमेशा के लिए टंग जाती हैं और वे वक्त के साथ नहीं बदलते। सुना है कि नाना पाटेकर ने अपने पुराने मित्र प्रकाश झा से भी शिकायत की कि नए लड़के रणबीर कपूर से कम उन्हें कैसे दिया जा सकता है, जिसे आए हुए जुम्मा-जुम्मा आठ दिन ही हुए हैं।

पिछले दिनों रिलीज रणबीर कपूर की फिल्म ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’ ने इतना व्यवसाय किया कि नाना की तमाम फिल्मों की आय भी उसके बराबर नहीं है। यह भी सुना है कि नाना पाटेकर ने बोनी कपूर की निर्माणाधीन फिल्म ‘इट्स माय लाइफ’ की डबिंग भी पैसे के कारण नहीं की है। ऐसा रवैया सिर्फ नाना पाटेकर या अरशद वारसी का नहीं है। अनेक कलाकार सबके सहयोग से अर्जित सफलता को निजी सफलता मानकर ऊंचा मेहनताना मांगने लगते हैं।

इरफान खान अच्छे संवेदनशील कलाकार हैं, परंतु उनके नाम से एक भी अतिरिक्त टिकट नहीं बिकता। अखबारों में अपने अभिनय की प्रशंसा को बाजार मूल्य समझते हुए वे गैरव्यावहारिक मेहनताना लेना शुरू करते हैं, परंतु फिल्म के पिटने पर घटाते नहीं हैं।

मनके की माला में एक दाना ऐसा होता है, जिसे घुमाते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। ठीक इसी तरह सितारे अपने बाजार मूल्य के मामले में अपनी असफल फिल्म को मनके की माला के उसी दाने की तरह लेते हैं, जो गिनती में शुमार नहीं होता। सितारे अपना अक्स यथार्थ के आईने में नहीं देखते, अपने गिर्द चमचों की आंखों में देखते हैं।

कुछ निर्माता हैं जो पूंजी निवेशक के धन से अव्यावहारिक मुआवजे देकर भी फिल्म बनाना चाहते हैं, क्योंकि निर्माण के दरमियान वह अपना घर भर लेते हैं। बारात या तो पूंजी निवेशक के घर उतरेगी या वितरण करने वाले कारपोरेट के आंगन में बैठेगी, गोयाकि सब टोपियां घुमा रहे हैं। फिल्म के लिए फिल्म थोड़े से लोग बना रहे हैं। यह व्यवसाय निहायत गैरव्यावहारिक तौर-तरीकों पर चल रहा है।

सभी क्षेत्रों में सफल लोगों के व्यवहार और विचार शैली में परिवर्तन आता है, परंतु फिल्म उद्योग में उनके ग्लैमर और मीडियोन्मुखी होने के कारण आमूलचूल बदलाव आता है। शायद इस उद्योग में सरल और स्वाभाविक होना बहुत नुकसान दे सकता है। फिल्म यूनिट पहाड़ों पर अपने साथ प्लास्टिक के फूल ले जाती है और मनपसंद जगह पर फूल हों, तो भी प्लास्टिक के फूल लगाती है। यही रवैया जीवन में भी अपनाया जाता है।

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माइकल जैक्सन ने की थी आत्महत्या!

News4Nation 8:53 PM

मशहूर पॉप स्टार माइकल जैक्सन ने एनेथिसिया प्रोपोफोल का जरुरत से ज्यादा डोज लेकर आत्महत्या की थी|डॉक्टर कोनरेड मुरे के वकील ने यह दावा किया है| कोनरेड पर आरोप है कि जैक्सन की हालत बिगड़ने पर जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था तो कोनरेड ने लापरवाही बरती थी जिसकी वजह से जैक्सन की मौत हो गई थी|

कोनरेड के वकील ने उनके बचाव में यह बातें लॉस एंजेलस के डिपटी डिस्ट्रिक्ट अटर्नी डेविड वालग्रेन को बताई|कोनरेड के वकील ने कहा कि जैक्सन के बेडरूम से दो प्रोपोफोल से भरी सीरिंज मिली थीं|उन्होंने खुद इन दवाइयों का अत्यधिक सेवन कर आत्महत्या की थी इसलिए कोनरेड पर यह आरोप सरासर गलत हैं कि अस्पताल में उनकी जान बचने के लिए उचित कदम नहीं उठाए गए|

कोनरेड के वकील ने कहा कि जब वह अस्पताल में भर्ती थे तो उनकी पूरी देखभाल कि गई मगर उन्होंने अपने आप बाथरूम में जाकर प्रोपोफोल का डोज लिया जिसकी वजह से उनकी मौत हो गई थी|कोनरेड के वकील ने यह भी बताया कि फिजिशियन जैक्सन के पास से जैसे ही थोड़ी देर के बाहर गए तो उन्होंने इस एनेस्थीसिया को सीरिंज के माध्यम से अपने शरीर में उतार लिया जिससे उनकी मौत हो गई|गौरतलब है कि जैक्सन कि मौत जून 2009 में रहस्यमई हालातों में हो गई थी और इलाज में लापरवाही बरतने पर कोनरेड पर केस दर्ज किया गया था|

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